35 हजार रुपये के कर्ज से हुई मामूली शुरुआत, आज है 600 करोड़ का साम्राज्य
अपना विचार: राजकोट का एक युवक इस तरह अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहा था। उन्होंने लंबे समय तक अपने पिता को अपनी विफलता के लिए कोसता रहा और इस तरह अपने जीवन के कीमती समय को अपनी नकारात्मक सोच के साथ बर्बाद करता रहा। उन्होंने स्थानीय स्तर की शतरंज चैंपियनशिप के लिए अपनी बारहवीं कक्षा की परीक्षा तक छोड़ दिया। मानो पूरी जिंदगी बिना किसी मकसद और बिना किसी गाइड के गुजर रही हो। आज वही व्यक्ति एक ऐसी कंपनी का नेतृत्व कर रहा है जिसमें हजारों कर्मचारी काम करते हैं और उनका सालाना टर्नओवर लगभग 600 करोड़ है।
आज हम आपके लिए एक अनकही और अनसुनी कहानी लेकर आए हैं। पराक्रम सिंह जडेजा का जीवन आज एक मिसाल बन गया है, जिसमें बड़ी सफलता हासिल करने के लिए संघर्षों से ऊपर उठने की पूरी कहानी है। वह राजकोट के ऐसे माहौल में पले बढ़े जहां लोग सारा दिन जुआ और शराब पीने में बिताते थे। वे शुरू से ही सामान्य स्तर के छात्र थे। पराक्रम सिंह को चेस का बहुत शौक था, उससे पहले उन्हें कुछ भी समझ नहीं आता था और इसी लगाव के कारण उन्होंने बारहवीं की परीक्षा भी छोड़ दी थी।
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जाहिर है, उन्हें परीक्षा में बैठने की बजाय शतरंज खेलने में अधिक दिलचस्पी थी। अब वे बिना किसी डिग्री के, बिना किसी लक्ष्य के जीवन का पीछा कर रहे थे। उन्होंने अपने शतरंज के लिए अपने पिता से कुछ पैसे मांगे। कुछ दिनों बाद उनके पिता ने उन्हें शुरू में 10,000 रुपये, फिर कुछ हफ्तों के बाद 5,000 रुपये और दस दिनों के बाद 5,000 रुपये दिए। इस बात को लेकर पराक्रम अपने पिता से नाराज हो गए और उन्होंने अपने पिता से कहा "अपने मुझे एक ही बार में सारे पैसे क्यों नहीं दिए। मेरे तीन दिन छूठ गए।"
पराक्रम के गरीब पिता ने उसे समझाया कि उन्होंने अपने भविष्य निधि, क्रेडिट सोसायटी और उसके दोस्त से उधार लेकर पैसे प्राप्त किए हैं। यह सुनकर पराक्रम स्तब्ध हो गए। इन सबका गहरा असर हुआ और उन्होंने फैसला किया कि वह शतरंज के अपने जुनून को छोड़कर अपने परिवार की मदद के लिए कुछ काम करेंगे।
एक मित्र ने उन्हें बताया कि सरकार की ओर से एक ऋण योजना है जिसमें 35,000 रुपये बिना ब्याज के मिल रहे हैं। पराक्रम ने एक मेटल काटने वाली लेथ मशीन खरीदी और एक दुकान किराए पर ली। उनके एक चाचा ने उनके व्यवसाय में उनकी बहुत मदद की। पराक्रम ने कड़ी मेहनत से एक साल के भीतर सभी ऋणों का भुगतान कर दिया।
उन्होंने मशीनिस्ट-एप्रन बनाने की अगली चुनौती ली। नौसिखिए व्यवसायी के लिए यह थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने अपना काफी समय इसके डिजाइन को समझने में बिताया। जब उनके चाचा को पांच एप्रन की जरूरत पड़ी, तो पराक्रम ने उन्हें 20 दिनों के भीतर एप्रन देने का वादा किया। यह उनके लिए एक शुरुआत थी और इसके बाद उन्होंने शहर भर में एप्रन की आपूर्ति के कारोबार में अपनी पहचान बनाई।
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1991 में उनके प्रदर्शन को देखते हुए एक स्थानीय बैंक ने उन्हें एक प्रतिशत ब्याज पर 5 लाख का कर्ज देने की पेशकश की। पराक्रम ने फैसला किया कि वह इस पैसे से ऑटोकैड कंप्यूटर खरीदेंगे जिससे मशीन को डिजाइन करने में मदद मिलेगी। उस समय उस कंप्यूटर की कीमत 1.6 लाख रुपए थी। सबकी यही सलाह थी कि इतना महंगा कंप्यूटर न खरीदें, लेकिन पराक्रम ने तकनीक की ताकत को समझते हुए इस कंप्यूटर को खरीद लिया।
उनका यह फैसला सही साबित हुआ और उन्हें कंप्यूटर से काफी फायदा हुआ। उनके उत्पाद अब अधिक सटीक और परिपूर्ण होनें लगे। उन्होंने 1993 में एक और बड़ा कदम उठाया, उन्होंने तय किया कि वे लेथ मशीन बनाएंगे, फिर उन्होंने किर्लोस्कर और एचएमटी जैसी बड़ी कंपनियों को आपूर्ति शुरू कर दी। उस वक्त उनकी टीम में सिर्फ 16 कर्मचारी थे और उनका सालाना टर्नओवर 25 लाख रुपये हो गया।
पराक्रम की कंपनी सीधे ग्राहकों के साथ ही डील करती थी और कभी भी कठोर व्यवहार नहीं करती है। यही वजह है कि उनकी कंपनी लगातार बढ़ती चली गई। उन्होंने कोई प्रचार नहीं किया, केवल उनके ग्राहक ही उनका प्रचार करते थे। उन्होंने अपनी कंपनी का नाम अपनी बहन के नाम पर 'ज्योति सीएनसी ऑटोमेशन' रखा।
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हर किसी के प्रति उनका सम्मानजनक रवैया, गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं करना और हमेशा नवीनतम तकनीक का उपयोग करना उनकी सफलता का सूत्र रहा है। आज उनका सालाना कारोबार 600 करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और करीब 1200 कर्मचारी कार्यरत हैं। इस तरह 35,000 रुपये के कर्ज से शुरू हुआ कारोबार आज देश की जानी-मानी कंपनी की लिस्ट में शामिल है। यह कहानी वास्तव में हम सभी के लिए एक प्रेरणा है।
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